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जैनधर्मसिंधु. सदाचार में सो सब धर्मके हेतुहे. अर्थात् कृपा धर्मका परिपालनके लिए सदाचार पालाजाताहे. निर्मल तेजका धारण करने वाला आत्मा सदा मस्तकमे रहताहे इस लिए और सदा वस्त्रसे वेष्टित रहनेसे मस्तक कनी अपवित्र होता नही. अझ जन स्नानके लिए जास्ति पाणी ढोलतेहे और उससे बहुत जीवकी विराधना करतेंहें; एसा स्नान करके श रीरकों पवित्र और आत्माकों मलीन करतेंहें. स्नान करने में जीजोया वस्त्र दूरकरके दूसरा वस्त्र पहिनके जहां तक पेर जीने रहे तहां तक अर्हत्का स्मरण करता उहांहि खमा रहे. जो खमा न रहेतो पगमें मेल लगेगा और पग अपवित्र होवेंगें. फिर कित नेक जीवोके घातकानी संजव होवेगा.इससे पापका जागीनी होवेगा. गृहमंदिर (घरदेरासर) में जाके प्रथमसे प्रमार्जना करके पूजा करने लायक वस्त्र पहिनके अष्टपट मुखकोश बांधे. मन, वचन, काया, वस्त्र, नूमि. पूजाके उपकरण, स्थिति (स्थिरता) यह सात प्रकारकी शुद्धी पूजाके समय करनी. स्त्रीका पहिना हुवा वस्त्र पुरुष पूजा समय नहि पहिरे और पुरुषका पहिना हुवा वस्त्र स्त्री नहि पहिरे क्योंकी उससे कामरागकी वृद्धि होती है. उत्तम कलसमे जरा जलसें जगतकों जलका श्रजिषेक करे और पीछे उत्तम वस्त्रसे अंग ढुंबन करके चंदना