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१४२ जैनधर्मसिंधु. बिहुँ कोडीदिं वरनाण, समणद कोमी सहस्स उअ, थुणिसुं निच्च विदाण ॥ जयन सामीशर सद सिरि सित्तुंजी उडतपहु नेमिजिण; जयन वीर सच्चनरिमंडण ॥ जरुअबेहिं मुणिसुब्वय मु दरि पास उद उरिय खमण, अवर विदेहिं तिब यरा, चिहुँदिसि विदिसि जं केवि, तीअणागय संपश्य,वंदूं जिण सवि॥ सत्तावणइ सहस्सा, लरका बपन्न अकोडी ॥ पंचसयं चउत्तीसा, तियलोए चेइए वंदे ॥इति चैत्यवंदन ॥
इहां चार स्तवन अथवा अहोत्तरी कदेवी पीनना थश्ने उवसग्गदरं कहे. पनी, वेसीने जंकिंचि नाम तिबंसग्गे पायालि माणुसे लोए॥ जाइं जिणबिंबाई, ताई सवाई वंदामि ॥ पनी नमुबणं (नमो जिणाणं) सुधी कहे,
(ए बहुंखमासमण.)परी श्वामि खमासमण पूर्वक श्बाकारेण संदिसह नगवन् ! गुरुवंदना करूं जी. एम कही गुरुवंदना कहीये. ॥ ॥
॥अथ गुरुवंदना ॥ . ॥अढाऊोश्सु दीव समुद्देसु, पनरससु कम्म नूमीसु ॥ जावंत केवि साहू, रयदरण गुल पडि