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जैनधर्मसिंधु. वन हसि रोमंचीयो रे लो ॥ हां०॥ वाया वाय सुवाय तिहा अविलंब जो ॥ वासें रे परि मल चिहुँ पासें संचियो रे लो ॥३॥ हां ॥ देव चतुर्विध श्रावे कोमा कोड जो॥ त्रिगडेरे मणि हेम रजतनुं ते रचे रे लो ॥ हां ॥ चोशह सुरपति सेवे होमाहोम जो ॥ श्रागें रे रस लागे, इंशाणी नचे रे लो ॥४॥ हा० ॥ माणमय हेम सिंहासन बेग आप जो ॥ ढाले रे सुर चामर मणि रत्ने जड्यां रे लो ॥ हां०॥ सुणतां कुंकुनि नाद टले सवि ताप जो ॥ वरसे रे सुर फूल सरस जानू श्रड्यां रे लो ॥५॥ हां ॥ ताजे तेजे गाजें घन जेम ढुंब जो॥राजे रे जिन राज समाजे धर्मने रे लो॥ हां ॥ निरखी हरखी आवे जनमन ढुंब जो ॥ पोषे रे रस न पडे धोखे नर्ममा रे लो ॥६॥ हां ॥ आगम जाणि जिननों श्रेणिक रायजो ॥ श्राव्योरे परवरियो हय गय रथ पायगे रे लो ॥ हां ॥ दक्ष प्रदक्षिणा वंदी बेगे गय जो ॥ सुणवा रे जिनवाणी मोटे नायगे रे लो ॥॥हा॥ त्रिजुवन नायक लायक तव जगवंत जो ॥ आणीरे जन करुणा धर्मकथा कहे रे लो ॥ हां ॥ सहज विरोध विसारी जगना जंत जो ॥ सुणवा रे जिनवाणी मनमां गह ॥ ॥ इति ॥