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जैनधर्मसिंधु त अस्तंगत दिनकर, दिनमें अवस्था दोय ॥ कि० ॥१॥ हरि बलिज पांडव नल राजा, रहे खट खंट रिछि खोय ॥ चंमाल के घर पाणी श्राएयुं, राजा हरिचंद जोय ॥ कि० ॥२॥ गर्व म कर तुं मूढ गमारा, चमत पमत सब कोय ॥ समय सुंदर कहे इतर परत सुख, साचो जिनधर्म सोय ॥ कि ॥३॥ इति वैराग्य सद्याय ॥
॥ अथ निशानी सद्याय ॥ ॥ बेटी मोह नरिंदकी, निझा नामें विख्यात बे ॥ धर्म वेषणि पापणी, न गमे धर्मनी वात बे॥ निंद न लहे जे सजनां, सजानां बे पुःखजंजना बे ॥ टेक ॥ नि ॥ १॥ घेरे सघला जीवने, जिहां जमनो पास बे॥ जा घमि निंद न पायें, ता घ मि प्रजुको वास बे॥निं०॥२॥ आलस उमराव एहनो, जालिम जोक जुवान बे ॥ दूत बगासूं जा
जो, चाले आगेतान बे ॥ नि ॥३॥ जाति पां च बे जेहनी पसरी विश्व प्रमाण बे॥ केवल विना एक जेहनी,कोइ न लोपेआणबे ॥ करमे न श्रावे ढकडी धर्मे पामै नंगाणबे वाजां बाजे जिहां उघनां, तिहां होय सुखनी हाण बेनि॥५॥उदय रत्न कहे जंघने, जीत्यानो एह उपाय बे॥ पहेंला श्रादार जो जीतिये, तो निसावश थाय बे॥६॥ निं० ॥इति॥