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षष्ठमपरिछेद.
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यो० ॥२॥ गय गमणी रमणी जग सार, पुत्र कल त्र सजन परिवार ॥ आपे कनक कोमि विस्तार ॥ जयो ॥३॥ घरे घोमा पायक नहींपार, सुखासन पालखी उदार ॥ वैरी विकट थाये विसराल ॥ जयो ॥ ४ ॥ प्रह उही जपियें गणधार, शकि सिकि कमला दातार ॥ रूपरेख मयण अवतार ॥जयो ॥५॥ कवि रूप चंद गुरु केरो शिष्य, गौतम गुरू प्रणमो निशदिस ॥ कहे गुण चंद ए शमता गार ॥ जयो ॥५॥इति ॥
॥अथ पार्श्वनाथ बंद ॥ ॥ चोपा ॥ सकलसार सुरतरु जगजाणं, जसु जस वास जगत परिमाणं ॥ सकल देव शिरमुगुट सुचंगं, नमो नमो जिनपति मनरंगं ॥१॥पामधी च्छेद ॥ जो जन मन रंगं, अकल अजंगं, तेज तुरं गं नीलंगं ॥ सवि शोना संगं, दग्ध अनंगं, शिश जुजंगं चतुरंग ॥ बहु पुण्य प्रसंगं, नित्य उबरंगं, नव नव रंगं नारंगं ॥ कीरति जलगंगं, देश पुरंगं, सुरपति संगं सारंगं ॥ १॥ सारंगा वक्र, पुण्य पवि त्रं, रुचिर चरित्रं जीवित्रं ॥ तेजो जित मित्रं, पंक ज पत्रं, निर्मल नेत्रं सावित्रं ॥ जग जीवन मित्रं, तरु सत सत्रं, मित्रामित्रं मावित्रं ॥ विश्वत्रय चित्रं, चामर बत्रं, सीस धरित्रं पावित्रं ॥ २ ॥ पावित्रा जरणं, त्रिजुवन सरणं मुगुटा नरणं आचरणं ॥ सुर