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जैनधर्मसिंधुः चार मंगल गावशेजे, प्रजातें धरी प्रेम ॥ ते कोमि मंगल पामशे, उदयरत्न नांखेएम ॥४॥
॥अथ नीडनंजन पार्श्वनाथनो बंद ॥ ॥ फूलणा बंद प्रजाती ॥ जीमनंजन प्रजु नीम नंजन सदा, नहिंकदा निष्फल थायसेवा ॥ नविजन नावशुं जजन मांही जजे, परमपद संपदा तखत लेवा ॥१॥ काशी वणारसी जिनपद पुरे जयो, वामा अश्वसेन सुत विश्वदीवो ॥ सेढीवेत्रक तटे खेटकपुरत, कल्पनी कोड कृपाल जीवो ॥२॥ नीम नव नित्तिनय नाव नंजणो, त्नक्ति जनरंज णोजावें नेट्यो ॥ आज जिनराज मुज काज सिझां सवे, मोह राजाननो मान मेव्यो ॥३॥ कोटि मन कामना सुजस बहु ठगमना, शिव सुख धामना आज साध्यां ॥ मंगल मालिका आज दीपालिका, मुज मन मंदिरें मोज वाध्या ॥४॥ पाठकें गठमें कात्ति वद श्राग्में, सतर अव्योत्तरें पासगायो ॥ उदयनिज दा सनी एह अरदास सुणि, हितधरी नाथजी हाथ सायो ॥५॥ इति ॥
॥अथ श्री गौतम गुरु प्रजात बंद ॥ जयोजयो गौतम गणधार, मोटी लब्धितणो नं डार ॥ समरे वंबित सुख दातार, जयो जयो गौतम गणधार ॥१॥ वीरवजीरवमो अणगार, चौद हजार मुनि शिर दार ॥ जपतां नाम होय जयकार ॥ ज