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अष्टमपरिच्छेद. ६ए ठे अब्रह्मचर्यगुप्तोपि ब्रह्मचर्यधरोपि वा ॥ व्रतः कौपीनबंधेन ब्रह्मचारी निगद्यते ॥१॥
ऐसें तीन वार पढके कौपीन पहिरावणा। पीछे पूर्वोक्त ब्राह्मणसमान उपवीत, मंत्रपूर्वक पहि रावे.। मंत्रो यथा ॥ __“॥ ॐ सधम्मोसि अधर्मोसि कुलीनोसि अकु नोसि सब्रह्मचर्यो सि सुमनासि उर्मनाथसि श्रद्धालुरसि अश्रझाबुरसि श्रास्तिकोसि नास्तिकोसि श्राईतोसि सौगतोसि नैयायिकोसि वैशेषिकोसि सांख्योसि चार्वाकोसि सलिंगोसि अलिंगोसि तत्त्व झोसि अतत्त्वज्ञोसि तनव ब्राह्मणोऽनोपवीतेन जवंतु ते सर्वार्थ सिद्धयः ॥”
इस मंत्रको नव वार पढके उपवीत स्थापन करे.। पीने तिसके हाथमें पलाशका दंम देवे, और मृग चर्म तिसको पहिरावे, और निदा मांगनी करावे. निदामार्गणकेपी उपवीतको वर्जके, मेखला, कौपी न, चर्मदंमादि दूर करे. । दूरकरनेकामंत्र यथा ॥ " ॥ ध्रुवोसि स्थिरोसि तदेकमुपवीतं धारय ॥"
ऐसें तीन वार पढे। पीछे गुरु, धारण किया है श्वेतवस्त्रका उत्तरासंग जिसने, ऐसे ब्राह्मणको, आगे बिठलाके, शिक्षा देवे.। यथा ॥
परनिंदां परखोहं परस्त्रीधनवांउनम् ॥ मांसाशनं म्लेबकंदलक्षणं चैव वर्जयेत् ॥१॥