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जैनधर्मसिंधु. वाणिज्ये खामिसेवायां कपटं मा कृथाः क्वचित् ॥ ब्रह्मस्त्रीचूणगोरदां दैवर्षिगुरुसेवनम् ॥२॥ अतिथीनां पूजनं च कुर्यादानं यथा धनम् ॥ अथात्मघातं मा कुर्या मा वृथा परतापनम् ॥३॥ उपवीतमिदं स्थाप्यमाजन्म विधिवत्वया ॥ शेषः शिदाक्रमः कथ्यश्चातुर्वर्यस्य पूर्ववत् ॥ ४॥
अर्थः-परनिंदा, परखोह, परधनकी वांग, मांस नक्षण, म्लेच्छकंद"लशुना दिनदण, श्नको वर्जना.। वाणिज्यमें स्वामीकी सेवामें, कदापि कपट न करना; ब्राह्मण, स्त्री, गर्न और गौ, इन चारोंकी रक्षा करनी देव ऋषि और गुरुकी सेवा करनी. । अतिथीयोंका पूजन करना, धनके अनुसार दान देना, आत्मघात नही करना, परको पीमा न करनी. । जन्मपर्यंत यावजीवे तबतक विधिपूर्वक उपवीत धारण करना, शेष शिदाक्रम पूर्ववत् चारों वर्णोंका कथन कर ना.॥ पीले सो बटुकृत, गुरुको स्वर्ण, वस्त्र, धेनु, अन्न, दान करे. । यहां बटुकरणमें वेदी, चतष्कि का, समवसरण, चैत्यवंदन, व्रतानुशा, व्रतविसर्ग, गोदान,वासदेपादि नहीं है.॥इति बटुकरणविधिः॥ इति छादशमोपनयनादिसंस्कारवर्णं समाप्तम् ॥
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