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अष्टमपरिजेद. ११ "विष्टरं प्रतिगृहाण " तब वर कहे “ॐ प्रतिय हामि" ऐसें कहके आसन पर बैठे ॥१॥ पीछे श्वशुर वरके पग प्रदालन करे ॥२॥ पीछे दहि चंदन अदत दूर्वा कुश पुष्प श्वेतसरसों और जल करके श्वशुर जमाश्को अर्घ देवे॥३॥पीठे आच मन देवे ॥४॥पी गंधप्रदतसे तिलक करे॥५॥ पीने वरको मधुपर्क प्राशन करावे ॥६॥पीछे गृहके शंदर वधूवरका परस्पर दृष्टिसंयोग और परस्पर दोनोंका नामग्रहण, शेषं पूर्ववत् ॥
इति चतुर्दशमः विवाह संस्कारः समाप्तः ॥ अथ पंचदशम व्रतारोप संस्कारः प्रारनते।
इहां जैनमतमें गर्जा धानसें लेके विवाहपर्यंत चतुर्दश १४ संस्कारोंकरके संस्कृत नी पुरुष, व्रतारो पसंस्कार विना इस जन्ममें प्रशंसा पात्र नही होता है. और परलोकमें आर्यदेशादिनावपवित्रित मनुष्य जन्म वर्गमोदादिका जाजन नही होता है. इस वास्ते व्रतारोपही, मनुष्योंको परमसंस्कार है. यत उक्तमागमे।
" बंजणो खत्ति वावि, वेसो सुद्दो तहेवय ॥ पयई वादि धम्मेण, जुत्तो मुक्खस्स जायणं॥१॥"
अर्थः-ब्राह्मण, वा क्षत्रिय, वा वैश्य, वा शूज, धर्मसे युक्त हुआ, मोदका नाजन होता है.॥१॥