________________
४५३
जैनधर्मसिंधु कमें दूजो, घमी घमी दिलसे न्यारो ॥ रे मन ॥ ॥॥ चचंल मन वरज्यो नही माने, प्रजुनवपार उतारो ॥रे मन लोनी.॥३॥ इति ॥
॥अथ वैराग्यपद ॥ ॥राग बेलावल ॥ रे मन कयुं जिन नाम विसा रयो ॥ कयुं ॥रे मनः ॥ विषय विकार महामद धारयो, जनम जुया ज्युं हारयो ॥रे मन ॥१॥ जीने तोकुं नरदेही दीनी, गर्नकी आंच उछारयो । प्रजुजीकुं तें शठ मूरख, एक घमी न संनार्यों ॥ रे मन० ॥२॥ नही कब दान शियल तप पूजा, न ही जीन नाम उच्चार्यों ॥ जैन धर्म चिंतामणी सरी खो, काच जाणकर मार्यों ॥ रे मन ॥३॥ कर ले सुकृत दया उझरले, जो जव चाहत सुधार्यों ॥ हर खचंद वर्धमान जीनेसर अवसर माहेन संजार्यो ॥ रे मन ॥४॥ इति ॥
॥वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥राघ जंगलो काफी ॥ जगमें नही तेरा कोश, नर देखहु निहचें जो ॥ जग ॥ ए श्रांकणी ॥ सुत मात तात अरु नारी, सहु स्वारथके हीतकारी बिन स्वारथ शत्रु सोश ॥ जग ॥ १॥ तुं फीरत महा मदमाता, विषयन संग मूरख राता ॥ निज संगकी सुध बुक खोइ ॥ जग ॥२॥ घट झानक ला नवि जाकुं, पर निज मानत सून ताकुं॥ श्राख