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अष्टमपरिछेद.
३५ ने मनमें सत्य विषयको जाणता हुश्रा जी, फूले पक्षका कदाग्रह, ग्रहण करे, जात्यादि अनिमानसें कहना, न माने, उलटी वकपोलकल्पित कुयुक्तियों बनाकरके अपने मनमाने मतको सिक करे, वादमें हार जावे तो जी न माने, ऐसा जीव, अतिपापी, और बहुल संसारी होता है. ऐसा मिथ्यात्व, प्रायः जो जैनी, जैन मतको विपरीतकथन करता है, उस में होता है, गोष्ठमाहिलादिवत् ॥
(४) चौथा सांशयिकमिथ्यात्व, सो देव गुरु धर्म जीव काल पुजलादिक पदार्थों में यह सत्य है कि, यह सत्य है ? ऐसी बुद्धि, तिसको सांशयिक मिथ्यत्व कहते हैं. तथा क्या यह जीव असंख्य प्रदे शी है ? वा नही है ? इसतरें जिनोक्त सर्व पदा र्थमें शंका करनी । “ सांशयिकं मिथ्यात्वं तदशेषया शंका संदेहो जिनोक्ततत्त्वेष्वितिवचनात् ॥” ।
(५) पांचमा अनाजोगिकमिथ्यात्व, सो जिन जीवोंको उपयोग नही कि, धर्म अधर्म क्या वस्तु है ? ऐसें जे एकेजियादि विशेषचैतन्यरहित जीव, तिनको अनाजोगमिथ्यात्व होता है. ॥२॥ ___ श्रथदेवलक्षणमाह ॥ देव सो कहिये, जो सर्व ज्ञ होवे, परंतु जैसें लौकिक मतमें विनायकका मस्तक ईश्वरने बेदन कर दिया, पीने पार्वतीके आग्रहसे सर्वत्र देखने लगा, परं किसी जगे जी