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जैनधर्मसिंधु. तिथे, अजिनंदन निर्वाण रे ॥ वि एसुमति सु व्रत नमि जनमीया, नेमनों मुक्तिदिन जाणरे ॥ पास जिन एह तिथे सिझला, सातमा जिनच्यवन माण रे ॥ वि० ॥ १०॥ एह तिथि साधतो राजि, दंडवीरज लह्यो मुक्तिरे ॥ कर्म हणवा जणी अष्टमी, कहे सूत्र नियुक्तिरे ॥ ११ ॥ अतीत अनागत का लना, जिन तणां के कल्याण रे ॥ एह तिथे वली घणा संयमी, पामशे पद निर्वाणरे ॥ विण ॥१॥ धर्मवासित पशु पंखिया, एह तिथे करे उपवास रे ॥ व्रत धारि जीव पोसों करे, जेहने धर्म अन्यास रे वि० ॥ १३ ॥ नांखियो वीरे श्रापम तणो, नविक हित एह अधिकार रे ॥ जिन मुखें उच्चरी प्राणिया, पामशे जव तणो पार रे ॥ वि०॥ ॥ १४ एहथी संपदा सवि लहे, टले कष्टनी कोम रे ॥ सेवजो शिष्य बुध प्रेमनो, कहे कांति करजोम रे ॥ वि० ॥ १५ कलश ॥ एम त्रिजग नासन, श्र चल शासन, वर्डमान जिनेश्वरू ॥ बुध प्रेमगुरु, सुपसाय पामी, संथूण्यो अल वेसरू ॥ जिन गुण प्रसंगें, नण्यो रंगे, स्तवन ए, आठमी तणो ॥ जेन विक नावे, सुणे गावे, कांति सुख, पावे घणो ॥१॥
इति अष्टमी स्तवनं समाप्तं ॥