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जैनधर्मसिंधु.
पञ्चकाण जांग्यां, पाटलो मगमगतो फेड्यो नहीं, गंग्सी, पोरसी, साट्ठपोरिसि, पुरिम, एकास गुं, बेच्प्रास नीवि, बिल प्रमुख पञ्चका पार विसायुं, बेसतां नवकार न नण्यो, उठता पच्चकाण करखं विसायुं, गंग्सीनं जा ग्यं, नीवी, बिल, उपवासादिक, तप करी काचं पाणी पीधुं, वमन हुर्ज, बाह्य तप विषयि अनेरो जे कोई प्रतिचार प० ॥ १४॥ अन्यंतरतप | पायवित्तं वि० ॥ मन शुद्धे गुरु कन्दे लोप्रणालीधी नहीं, गुरु दत्त प्रायश्चित्त तप लेखा शुड़ें पहुंचाड्यो नहीं, देव, गुरु, संघ, सादम्मी प्रत्यें विनय साचव्यो नहीं, बाल, वृध, ग्लान, तपस्वी प्रमुखनुं वै यावच्च न कीधुं, वांचना; पृचना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकयालक्षण पंचविध स्वाध्याय न कीधो, धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्याया, आ र्त्तध्यान, रौऽध्यान ध्यायां, कर्म दय निमित्तें लोगस्स दशवीशनो काउस्सग्ग न कीधो ॥ अभ्यंतर तप विषयी अनेरो जे कोइ प्रति चार पद दिवसमांदि० ॥ १५ ॥
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