________________
४७४
जैनधर्मसिंधु. चंद सूर, श्राकास जमामिय ॥ रूवहिमयण अनं ग करवि मेन्यो निरधामिय धीरमें मेरु गंजीर सिंधु, चंगम चयचाडिय ॥४॥ पेखवि निरुवम रूव जास, जिण जंपे किंचिय ॥ एकाकी किल जीत श्न, गुण मेल्या संचित्र अहवा निश्चे पुत्व जम्म, जिणवर इणअंचिय ॥ रंजा पजमा गौरी गंगा, रति हा विधि वंचिय ॥५॥ नहिं बुद्ध नहिं गुरु कवि न कोई, जसु श्रागल रहि ॥ पंचसया गुणपात्र बात्र, हीडे पर वरि ॥ करे निरंतर यज्ञकर्म, मिथ्यामति मोहिय ॥ इंण बल होशे चरम नाण, देसणह विसोहिय ॥६॥ वस्तु, बंद ॥ जंबूदीवह जंबूदीवह, नरद वासंमि, खो णीतलमंमणो, मगधदेस सेणिय नरे सर ॥ धण वर गुठवर गाम तिहां, विप्प वसे वसुजूर सुंदर, तसु पुहवी नजा सयल, गुणगणरुव निहाण ॥ ताणपुतवीद्या निल, गोयम अतिहि सुजाण ॥७॥ नाषा ॥ चरम जिणेसर केवल नाणी, चन विहसंघपश्ठाजाणी ॥ पावापुर सामी संपत्तो, चल विह देव निकायें जुत्तो ॥॥ देवें समवसरण तिहां कीजें, जिणे दी मिथ्यामति सीजे ॥ त्रिजुवन गुरु सिंहासण बश्शा, ततखिण मोह दिगते पहा ॥ ॥ ए ॥ क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाग जिम दिनचोरा ॥ देवहुंमुनि आकाशे वाजी, धर्म