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शष्ठमपरिवेद. नाथ नवदंनिसरोरुहाणां, नक्तेः फलं किमपि संतति संचितायाः ॥ तन्मेत्वदेकशरणस्य शरण्य नूयाः, स्वा मीत्वमेव जुवनेऽत्र नवांतरेऽपि ॥ ४२ ॥ छ समा हितधियो विधिवजिनेंड, सांस्रोतसत्पुलककंचुकि तांग नागाः ॥ त्वबिंबनिर्मलमुखांबुजबहलक्या, ये संस्तवं तव विनो रचयंति जव्याः ॥ ४३ ॥श्रार्या॥ जननयनकुमुदचं,प्रनास्वराःस्वर्गसंपदो जुक्त्वा ॥ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोदं प्रपद्यते ॥ युग्म म् ॥ ४४ ॥ इति श्रीकल्याणमंदिरंसंपूर्ण ॥
॥अथ वृक्ष गोतम स्वामीनो रासलिणवीर जिणे सर चरण कमल,कमला कय वासो ॥ पणमवि पजणी सुसामिसाल, गोयम गुरुरासो ॥ मण त्तण वयणे एकांत करवि, निसुणन नो जविया ॥ जिम निवसै तुम देह गेह, गुण गणं गह गहियां ॥१॥ जंबुझिव सिर नरह खित्त, खोणी तल मंमण ॥ मग ह देश सेणिय नरेस, रिज दल बल खंगण ॥ धण वर गुवर गांम नाम, जिहा गुणगण सजा ॥ विप्प वसै वसुलू तत्थ, तसु पुहवीजजा ॥२॥ ताण पुत्त सिरी इंद जुय,नूवलय पसिको॥ चउदद विजा विविह रूव, नारी रस लुको ॥ विनय विवेक विचार सार, गुण गणह मनोहर ॥ सात हाथ सुप्रमाण देह, रूवहि रंना वर ॥ ३ ॥-नयण वयण कर चरण जिण विपंकज जल पामिय, तेजेंहि तारा,
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