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जैनधर्मसिंधुः ज्ञात्वा सुगृहीतं कुर्या मंत्रममुं सदा ॥ सेत्स्यति सर्वकार्याणि तवास्मान्मंत्रतो ध्रुवम् ॥ १४ ॥
गुरुने ऐसे शिदा दिया हया उपनेय तीन प्रद क्षिणा करके " नमोस्तु ” ऐसें कहता हुआ, गुरुको नमस्कार करे. पी गुरुको वर्णका जिनोप वीत, सुवर्णमौजी, श्वेत वस्त्र रेशमी वसंपदानुसारें देवे. और सर्वसंघको नी तांबूल वस्त्रादि देवे. ॥ श्त्युप नयने व्रतबंधविधिः॥
श्रथ व्रतादेशविधि लिख्यते हैं. ॥ तिसही श्रव सरमें, तिसही संघके संगममें, तिसही गीतवाज त्रादि उत्सवमें, तिसही वेदचतुष्किकामें प्रतिमास्था पन संयोगमें, व्रतादेशका आरंन करे. तिसका यह क्रम है. । गृहस्थगुरु, उपनीत पुरुषके कार्पास रेशमी अंतरीय (उत्तरीय)वस्त्र दूर करके मौंजी, जिनोपवीत कौपीन, येह वस्तुयों तिसकी देहमें तैसेंही स्थापके, तिसके ऊपर कृष्णसारा जिन (कालामृगचर्म ) वा, वृदके वल्कलका वस्त्र पहिरावे. । हाथमें पलाशका दंमा देवे. और इस मंत्रको पढे. __“॥ अह ब्रह्मचार्यसि । ब्रह्मचारिवेषोऽसि अवधिब्रह्मचर्यो सि । धृतब्रह्मचर्योंसि । धृताजिनदं मोसि । बुझोऽसि । प्रबुद्धोऽसि । धृतसम्यक्त्वोऽसि दृढसम्यक्त्वोसि । पुमानसि । सर्वपूज्योऽसि । तद वधिब्रह्मव्रतं आगुरुनिदेशं धारयेः अहँ उँ ॥”