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जैनधर्मसिंधु. ज्ज्वल जेम चंद्रकला ॥ तुक नामें पामे झकि घ णी, जय जय जगदीश्वर त्रिजग धणी ॥ १४ ॥ चिं तामणि कामगवी पामे, हयगय रथ पायक तुक ना में ॥ जन पद ठकुरा तुं आपे, उर्जन जननां दारि ७ कापे ॥ १५ ॥ निर्धनने तुं धनवंत करे, तूगे को गर नंमार नरे ॥ घर पुत्र कलत्र परिवार घणो, ते सहु महिमा तुम नाम तणो ॥ १६ ॥ मणि मा णक मोती रत्न जड्या, सोवन नूषण बहु सुघम घ ड्या ॥ वली पेहेरण नवरंग वेश घणा, तुम नामें नवि रहे कांश मणा ॥ १७॥ वैरी विरुड नवि ताकि सके, वली चाम चुगल मनथी चमके ॥ बल बिन कदा केहनो नलगे, जिनराज सदा तुऊ ज्योति जगे ॥ १७ ॥ उग गकुर सवि थर हर कंपे, पाखंमी पण को नवि फरके ॥ खूटा दिक सहु नासी जाए, मा रग तुऊ जपतां जय थाए ॥ १५ ॥ जम मूरख जे मति हीन वली, अज्ञान तिमिर तसु जाय टली॥ तुऊ समरणथी माह्या थाये, पंमित पद पामी पूजाये ॥२०॥ खस खांशि खयन पीडा नासे, पुर्बल मुख दीनपणुं त्रासे ॥ गम गुंबम कुष्ट जिके सबलां, तुज जा रोग समे सघला ॥१॥ गहिला गूंगा बहिरा य जिके, तुज ध्याने गतमुख थाय तिके ॥ तनु कां ति कला सुविशेष वधे, तुज समरणशुं नवनिधिसधे ॥२२॥ करि केसरी अहि रण बंध सय, जल जल