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अष्टमपरिवेद. __ यहां उपनयनमें गोदानकाही निश्चय है, शेष दान क्रमकरके अन्यदा नी देना. गोदानादि दान गृहस्थगुरु ब्राह्मणोंकोही देना. निःस्पृह यतियोंको न देना. तथा तिन यतियोंको, अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, नेषज, वसति, पुस्तकादि दानमें 'धर्मलानः' यही मंत्र जाणनाः । अथ गृहस्थगुरु, उपनीतसें गोदान लेके, पर्णानुझा देके, चैत्यवंदन, और साधु वंदन करायके, तैसेंही संघके मिले हुए, मंगलगीत वाजंत्रोंके वाजते हुए, शिष्यको साधुयोंकी वसतिमें (उपाश्रयमें) ले जावे. तहां मंडलीपूजा, वासदेप, साधुवंदनादि सर्व पूर्ववत् करना. । पीछे चतु विध संघकी पूजा, और मुनियोंको वस्त्र, अन्न, पात्रा दि दान करे. ॥ इति गोदान विधिः ॥
संपूर्णोयं चतुर्विधउपनयनविधिः ॥ अथ शजको उत्तरीयक देनेकी विधि लिख हैं. ॥ सात दिन तैल निषेकस्नान पूर्ववत् जाणना.। तदनंतर यथाविधि पौष्टिक, सर्व शिरका मुंमन, वेदिकरण, चतुष्किकाकरण, जिनप्रतिमास्थापन, पूर्ववत्. । पीछे गृहस्थगुरु, जिनेश्वरकी अष्टप्र कारी पूजा करे. चारों दिशायोंमें शक्रस्तव पाठ करे. पी गुरु श्रासनऊपर बैठ जावे. तब शिष्य श्वेत वस्त्र पहिरके, उत्तरासंगकरके समवसरण और गुरुको, प्रदक्षिणा करके, 'नमोस्तु ' कहता हुआ, गुरुको