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________________ अष्टमपरिच्छेद. Jou विश्वस्य कार्यकृतये किल पर्यणैषीत् ॥ नार्याद्वयं तद मुना विधिनास्तु युग्म, मेतत्सुकामपरिजोगफला नुबंधि ॥ १ ॥ " ऐसें कहके पूर्वोक्त विधिसें चलमोचन करके " वत्सौलब्ध विषयौ जवतां " ऐसें गुरुअनुज्ञात दोनो दंपती - स्त्रीजर्त्ता, विविध विलासिनीयोंके गए सें वेष्टित, श्रृंगारगृह में प्रवेश करें. । तहां पूर्वस्थापित मदनकी कुलवृद्धानुसार पूजा करे. । पीछे तहां वधूवरको समहीकालमें कीरान्नजोजन कराना. पीछे यथायुक्तिकरके शयन गृहमें जावे । · पीछे तिसही श्रागमनरीतिकरके उत्सवसहि त अपने घरको जावे । पीछे वरके मातापिता, वर को निरंन मंगल विधी स्वदेशकुलाचारकरके करे. । कंकणबंधन, कंकणमोचन, द्यूतक्रीमा, वेणीग्रंथनादि, सर्व कर्म जी, तिस २ देशकुलाचारकरके करणे चाहिये । विवाद से पहिले वधूवर दोनोंके पक्ष में जोजन देना । तदनंतर धूलिनक्त, जन्यनक्त, यदि देश कुलाचारसें करणे । पीछे सात दिनके नं तर वरवधू विसर्जन करना, तिसका विधि यह है. सात दिनतक विविध नक्तिसें पूजित जमाइको, । * इस कथनसें यो यही सिद्ध होता है कि यौवनप्राप्तोंकाही विवाह होना चाहिये क्योंकि उसहि समय कामक्रीमा करनेका विधि इस ग्रंथ में लिखा है.
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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