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चतुर्थपरिद.
३६१ धि झानसे तवतिहा देख्यो ॥ अंगुठे मेरु चंपायो ॥ संशय हरण चरण प्रजुजीके, कलस हजारु ढ रायो ॥ ना॥३॥ सिकारथ घर आयकेरे ॥ मंगल चार गवायो ॥ सुमन अधमकों निजपद दीजे,मन वंबित फल पायो ॥४॥ इति ॥
समेत शिखर ॥ सांवरिया जैसें बने तेसें तारो ॥ मेरी करणी कबु न विचारो ॥ सा ॥ नागनागनी व्याकुल दोनुं ॥ जरत अगनीसे उवारो ॥ उनकों राजदियो सुर पुरकों ॥ मुजकों क्योंन उधारो ॥ १॥ सां ॥ अश्व सेनके नंदन कहिये ॥ माता वामा देवी प्यारो ॥ बाल श्रावस्थामें जोग लियो हे॥ चार महाव्रत धारो ॥२॥सां ॥ योग निरोधी दसखख श्रावक ॥ अष्ट करमकों पठारो ॥ काया गाल गए सिवपुरकों ॥ लोका लोकनिहारो ॥३॥ सां ॥ धन्यघमी धन्य जाग हमारो ॥ शिखर समेत जुहारो ॥ मनवचका नमत बुध गंगा ॥ चरण कमल बलि दारो ॥
रागणी माढ. मेवाडोरे मली ॥ एराह ॥ प्रजु जीव जीवन आधाररे, तुमने खमारे खमा ॥ एटेक ॥ श्रीसिका. चल मंमन साहेब, तुं प्रजु श्रानंद कंद ॥ जव्य कमल प्रति बोधन दिनमणि, मुखडं पुनम चंदरे ॥१॥ तु ॥ तुज वाणी अमृत करेरे, सागर जेम