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चतुर्थपरिछेद. ३०७ सिरावियें ॥ सा ॥ पापस्थान थाढार तो ॥ शिव गति बाराधन तणो॥साए चोथो अधिकार तो॥णा ढाल पांचमी ॥ हवे निसुणो श्हां आवीया ए एदेशी
॥ जनम जरा मरणे करीए, ए संसार असार तो ॥ कस्यां कर्म सहु अनुजवे ए, को न राखणहार तो ॥१॥ शरण एक अरिहंतनुं ए, शरण सिझन गवंत तो ॥ शरण धर्म श्रीजैननो ए, साधु शरण गु णवंत तो ॥२॥ अवर मोह सवि परहरी ए, चार शरण चित्त धार तो ॥ शिवगति बाराधन तणो ए ए पांचमा अधिकार तो ॥३॥था नव परजव जे करयां ए, पापकर्म केई लाख तो ॥ आत्मसाखें ते निंदीयें ए, पडिकमियें गुरु साख तो ॥४॥ मि थ्यामति व वियां ए, जे नांख्यां उत्सूत्र तो ॥ कु मति कदाग्रहने वशे ए, वली थाप्यां उत्सूत्र तो ॥ ५॥ घड्यां घमाव्यां जे घणां ए, घरटी हल हथी यार तो ॥ जव जव मेली मूकीयां ए, करता जीव संहार तो ॥ ६ ॥ पाप करीने पोषिया ए, जनम ज नम परिवार तो ॥ जनमांतर पहोता पली ए, कोश न कीधी सार तो ॥७॥श्रा नव परनव जे कस्यां • ए, एम अधिकरण अनेकतो ॥ त्रिविध त्रिविध वो सिरावीयें ए, आणी हृदय विवेक तो ॥ ॥ दुष्कृ त निंदा एम करी ए, पाप कस्यां परिहार ॥ शिवग . ति आराधन तणो ए, ए हो अधिकार तो॥ ए॥