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जैनधर्मसिंधु.
अर्थः-तहां जिस प्रतिमामें मासतक श्रावक निःशंकितादि सम्यग् दर्शनवाला होवे, सा प्रथम दर्शनप्रतिमा १. व्रतधारी द्वितीया २. कृतसामायिक तृतीया ३. अष्टमी चतुर्दश्यादिमें चतुर्विध पौषध करना, चतुर्थी ४. पौषधकालमें, रात्रिकी आदि प्रतिमा, अंगीकार करनी, स्नान, प्राकनोजी, दिनमें ब्रह्मचारी, रात्रिमें परिमाण करे और कृत पौषध तो, रात्रिमें जी ब्रह्मचारी, इति पंचमी ५. सदा ब्रह्मचारी षष्ठी ६. सच्चित्तादारवर्जक सप्तमी 9. आप आरंभ नही करना, अष्टमी, नौकरोंसें
रंज नही करावना, नवमी एए. उद्दिष्टकृताहारव र्जक, कुरमुमित, शिखासहित, वा निराधारीकृतध नका, पुत्रादिकोंको बतलानेवाला, इति दशमी १०. कुरमुंमित, लुंचितकेश, वा रजोहरणपात्रधारी, साधु समान, निर्ममत्व, अपनी जातिमें श्राहारादिके वास्ते विचरे, इतिएकादशी ॥ ११ ॥
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यहां पहिली एक मास, दूसरी दो मास, तीस री तीन मास, एवं यावत् इग्यारहमी इग्यारह मास पर्यंत. तथा जो अनुष्ठान, पूर्व प्रतिमामें कहा है, सोही अनुष्ठान, यागेकी सर्व प्रतिमायोंमें जानना. इनमें वितथ प्ररूपणा श्रद्धानादि करना, सो प्रति चार है । तिनमें पहिली ' दर्शन प्रतिमा ' तिसमें 1 नंदि, चैत्यवंदन, क्षमाश्रमण, वासक्षेप, श्नोंका विधि