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अष्टमपरिजेद.
४१ अमें मुबे हुए, हैं, ता वे, किसतरेंसें दूसरे जीवोंको संसारसागरसें तार सकते हैं ? इसवातमें दृष्टांत कहते हैं । जो पुरुष श्रापही दरिद्धी है, सो परको ईश्वर लदमीवंत करनेको समर्थ नहीं है; तैसेंही वे कुगुरु, श्रापही संसारमें मुबे हुए, पर अपने सेवकोंको कैसें तार सके ? ॥ ए॥
धर्मलक्षणमाह ॥सत्य धर्मका स्वरूप कहते हैं। पुर्गति नरक, तिर्यंच, कुमनुष्य, कुदेवत्वादि उर्गति में गिरते हुए प्राणिकी रदा करे, गिरने न देवे, इस वास्ते धारण करनेसें धर्म कहिये, सो, संयमादि दशप्र कार सर्वज्ञ कथित धर्म, पालनेवालेको मोदकेवास्ते होता है. । संयमादि दश प्रकार ये है. संयम जीवदया १, सत्यवचन २, अदत्तादानत्याग ३, ब्रह्म चर्य ४, परिग्रहत्याग ५, तप ६, क्षमा ७, निरहंका रता ज, सरलता ए, निर्लोजता १०, ॥ इससे उलटा हिंसादिमय असर्वज्ञोक्त धर्म, उर्गतिकाही कारण है.॥१०॥
अधर्मत्वमाह ॥ अपौरुषेयं० अपौरुषेय वचन, असंजवि-संजवरहित है. क्योंकि, जो वचन है सो किसी पुरुषके बोलनेसेंही है, विना बोले नही. वचू परिनाषणे इति वचनात्. और अक्षरोत्पत्तिके श्राप स्थान नियत है, सो जी पुरुषकोंही होते हैं. इस वास्ते बचन पुरुषके विना संजवे नही । नवेद्य