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जैनधर्मसिंधु. काम एटलां कीधानी अंत, वली क्रिया करावे खंत ॥ रति स्नान करीने रहे, बींक होय तो पुत्रज लहे ॥॥ तुवतीने दीधे दान, पनी होवे पुत्र निदा न ॥ वैरी जीती जागुंजोये, डीके वैरी सब लो हो य ॥ ए॥ रोगी काज वैद्य तेमवा, जातां बीके जो नव नवा ॥ ते रोगीने मृत्यु जाणीये, काम विन वैद्य नाणीये ॥ १० ॥ वैद्य रोगीने घरे श्रावतां, बीं क होये औषध श्रापतां ॥ रोगी तणो रोग ते समे,
आहार लेते जम गमे ॥ ११॥ व्यापारे लीधे व्या पार, बींक होय तो वृधि अपार ॥ लेखु शुभ दीधु रायने, बीक फोक थाये तेहनें ॥१॥पाणीपीता अथ संवाद, बीक दृष्टि दोष अनिवाद नवे घरे वसवा श्रावीयें, बींक होये तो उचालीयें ॥ १३ ॥ व्याजे अव्य केहने श्रापता, वली पृथवीमां धन दाटतां ॥ कर्षण जोवा जातां वली, वृष्टि होय पुहवी मन रु सी॥ १४ ॥ बींक शुकन नर जाणे जेह, पग पग संपद पामे तेह ॥ बींक विचार जाणे जो कोश, ज्ञ कि वृद्धि कल्याणक हो ॥१५॥ इति बींक विचार॥
॥श्रथ वैराग्योपदेशक सद्याय ॥ ॥ हक मरना हक जाना यारो, मत को करो गु माना॥हा ए आंकणी ॥ उंढण माटी, रण माटी, माटीका सराना ॥ वसतीमेंसें बहार निकाला, जंग ल किया ठिकाना ॥ ॥१॥ हाथी चडते घोडे च