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अष्टमपरिवेद. वंदे श्रवाई चेश्याई, एगग्गसुथिरचित्तेणं ॥ खणजंगुराशो मणुअत्तणा श्णमेव सारंति ॥२॥ तथ्य तुमे पुवएहे, पाणंपि न चेव ताव पायवं ॥ नो जाव चेश्याई, साइविध वंदिया विहिणा॥३॥ मलएहे पूणरवि, वंदिऊण निअमेण कप्पए जुत्तुं ॥ अवरएहे पुणरवि, वंदिऊण निश्रमण सुअणंति॥४॥
इत्यादि महानिशीथमध्यगत वीस गाथामें कही हुई देशना देके, तीन संध्या में चैत्यवंदन साधुवंदन करनेके अनिग्रह विशेषोंको देवे. पीले वासमंत्रके सात गंधकी मुष्ठी “ निथ्थारगपारगो होहि " ऐसें कहता हुआ गुरु, तिसके शिरमें प्रदेप करे. । पीछे अदतसहित वासदेपको मंत्रे । तिस समयमें सुर जिगंध अम्लान श्वेत पुष्पोंके समूहसे ग्रंथन करी हुई मालाको जिनप्रतिमाके पगोंऊपर स्थापन करे। सूरि खमा होके अनिमंत्रित वासको जिनचरणोंके ऊपर देप करे, पास रहे साधु साध्वी श्रावक श्रावि का सबको गंधादत देवे । श्राफ नमस्कारअनुज्ञा केवास्ते तीन प्रदक्षिणा देवे । तब गुरु “ निबारग पारगो होहि गुरुगुणेहिं वुढाहि” ऐसें कहे. और जन (संघ) “पूर्णमनोरथवाला तूं हुआ है, तूं धन्य है, तूं पुण्यवान् है" ऐसें कहते हुए उनके उपर गुरुसंघादि वासदेप करे । पीछे फिर श्राफ समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे। पीछे गुरु और