________________
७७६
जैनधर्मसिंधु.
कादिकोंको एकडे करे, पीछे मालाग्राही कृतज चित वेष, कृतधम्मिल, उत्तरासंगवाला, निजवर्णानुसार सें जिनोंपवीत उत्तरीया दिधारी, सज करके प्रचुरगंधादि उपकरण अक्षत नालिकेर हाथमें लेके पूर्ववत् सम वसरणको तीन प्रदक्षिणा करे । पीछे गुरुके समीपे क्षमाश्रमपूर्वक कहे ॥ " इछाकारेण तुने म्हं पंचमंगलमहासुरकंध इरिश्राव हिश्रा सुअरकंध, स क्कथ्ययसुअरकंध,चेश्ाध्यय सुष्ठाकंध, चडवी सथ्ययसु अरकंध, सुयथ्ययसुरकंध, अणुजाणावणिचं, वासरके वं करेह " ॥ पीछे गुरु जी निमंत्रित वासक्षेप करे । फिर श्राद्ध क्षमाश्रमणपूर्वक कहे " चेश्याई च वंदावेद" पीछे वर्द्धमानस्तुतियोंसें चैत्यवंदन कराना, शांतिदेवादि स्तुति पूर्ववत्. फिर शक्रस्तव श्रादि स्तोत्र कहना. पूर्ववत् । पीछे ऊठके “पंच मंगलमहासुरकंध परिक्रमण सुारकंध जावारिहं तथ्यय ग्वणारिहंतथ्यय चडवीसथ्यय नापथ्यय सिद्धथ्य जाणावणियं करेमि काउस्सग्गं अन्न थ्य उस सिएणं - यावत् - अप्पाणं वो सिरामि " कह के चतुर्विंशतिस्तव चिंतन करे, पारके प्रकट चतुर्विंश तिस्तव पढे । गुरु तीनवार परमेष्ठिमंत्र पढके यासन ऊपर बैठ जावे, संघ और परिजनसहित श्राद्धको जो जो देवाणु पिया, संपाविष्टा निययजम्मसाफलं ॥ तुमए अप्प निई, तिक्कालं जावजीवाए ॥ १॥