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श्रष्टमपरिछेद.
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प्रबोधवास्ते, गुरुके वचन जी, प्राकृतही है. ॥ यत उक्तमागमे ॥
“ ॥मुत्तण दिद्विवायं का लियउक्का लियंग सिद्धतं ॥ श्री बालवायचंपाश्यमुइयं जिणवरेहिं ॥ १ ॥” अर्थः- दृष्टिवादको वर्जके कालिक उत्कालिक अंग सिद्धांतको स्त्रीबालकों के वाचनार्थ जिनवरोंने प्राकृत कथन करे है. ॥ यथाच ॥ बालस्त्री वृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् ॥ अनुग्रहाय तत्त्वज्ञैः सिद्धांतः प्राकृतः कृतः ॥ १ ॥
और दृष्टिवाद बारमा अंग, परिकर्म १ सूत्र १ पूर्वानुयोग ३, पूर्वगत ४, चूलिकारूप ५ पंचविध संस्कृत में ही होता है, सो बालस्त्रीमूर्खको पठनीय नही है. संसारपारगामी तत्त्वउपन्यासके वेत्ता गीता
कोंढी पठनीय है. शेष एकादशांग कालिक उत्का लिकादिशास्त्र योगवाहि साधु साध्वी और संय मी बालकोंके पढने योग्य हैं. इसवास्तेही अरिहंत जगवंतोंनें एकादशांगादि शास्त्र प्राकृतमें करे हैं. तिसवास्ते व्रतारोपमें जी, गृहस्थ बाल स्त्री मूर्ख जनोके उपकारार्थ और तैसें यतियोंकेजी, वचन, प्राकृतमें कड़े है. ॥
अथ मृडु, ध्रुव, चर, क्षिप्र नक्षत्रोंमें प्रथम निक्षा, तप, नंदी, आलोचनादि कार्य करणे शुभ है. और मंगल, शनि, विना सर्व वारोंमें. । वर्ष,