________________
अष्ठमपरिवेद. ६३ अथ विवाह संस्कार विधिलिख्यते ॥ - विवाह जो है सो समानकुलशीलवालोंकाही होता है. यतउक्तं ॥ ययोरेव समं शीलं; ययोरेव समं कुलम् ॥ तयोमैत्री विवाहश्च, न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥१॥
तिसवास्ते समकुलशील, समजाति, जाने है देशकृत्य जिनोंके, तिनका विवाहसंबंध जोडना योग्य है; तिसवास्ते जो अविकृत है, तिसनें विकृ तकुलकी कन्या ग्रहण नही करनी । विकृतकुलं यथा। जिनकेकुलमें शरीरऊपर रोम बहुत होवे, अर्शरोग होवे, दाद होवे, चित्रकुष्टि होवे, नेत्ररोग होवे, उदररोग होवे, ऐसे वंशोंकी कन्या न ग्रहण करनी. विकृत कुल होनेसें. । कन्या विकृता यथा । वरसे लंबी होवे, हीन अंगवाली होवे, कपिला होवे, ऊंची दृष्टिवाली होवे, जिसका नाषण और नाम नयानक होवे, ऐसी कन्या विचरणोंको त्याग ने योग्य है. तथा देवता, ऋषि, ग्रह, तारा, अग्नी. नदी, वृदादिकके नामसे जो कन्या होवे, तथा जिसके शरीरऊपर बहुत रोम होवे, पिंगादी और
घरघरावरवाली, ऐसी कन्या नी पाणिग्रहणमें वर्ज .नी. ॥ कन्यादाने वरस्य विकृतं कुलं यथा ॥ हीन होवे, क्रूर होवे, वधूसहित होवे, दरिखी होवे,