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जैनधर्मसिंधु. जीतनेवाला ७, परिषदादिको श्रानंदकारक श्ए, शुचि-पवित्र ३०, गंजीर ३१, अनुवर्ती ३२, अंगीकार करेका पालनेवाला ३३, स्थिरचित्तवाला ३४, धीर ३५, उचितका जाननेवाला ३६, ये पूर्वोक्त ३६, गुण
आचार्यके सूत्र में कहे हैं.॥ ___ ऐसें पितापरंपरायसें माने गुरुके प्राप्त हुए, वा, तिसके अनावमें पूर्वोक्त गुणयुक्त अन्यगच्छीय गुरुके प्राप्त हुए, गृहस्थको व्रतारोपणविधि योग्य है, सो विधि यह है. ॥ चतुर्दश संस्कारोंकरके संस्कृत ऐसा गृहस्थी गृहस्थधर्मको अंगीकार करने योग्य होता है।
कहा हे की.
अनुज १, रूपवान् २, प्रकृतिसौम्य ३, लोकप्रि य ४, अक्रूरचित्त ५, नीरु ६, अशठ , सुदाहिएय ज, लजालु ए, दयालु १० मध्यस्थ सोमदृष्टि ११, गुणरागी १५, सत्कथी १३, सुपदयुक्त १४, सुदीर्घ दर्शी १५, विशेषज्ञ १६, वृक्षानुग १७, विनीत १७, कृतज्ञ १ए, परहितार्थकारी २०, और लब्धलद १ श्कीस गुणोंवाला श्रावक धर्मरत्नके योग्य होता है। अर्थात् इक्कीस गुण जिस जीवमें होवे,अथवा प्रायः नवीन उपार्जन करे, तिस जीवमें उत्कृष्ट योग्यता माननी. और थोडेसे थोडे श्कीस गुणोंमेंसें चाहे को दश गुण जीवमें होवे, तिसको जघन्य योग्य