________________
१२० जैनधर्मसिंधुः परि वासक्षेप करे। पीने गुरु, श्रासन ऊपर बैठके गंध थक्षत वासांको सूरिमंत्रसें, वा गणिविद्यासें मंत्रे । पी गंधादत वासांको हाथमें लेके जिन चरणोंको स्पर्श करावे. । पीछे साधु, साध्वी, श्राव क, श्राविकाओंको देवे. ते साधुश्रादि, मुहीमें लेले वे. । पीछे श्राफ गुरुके आगे दमाश्रमण देके कहे ॥ " जयवं तुने श्रमं सम्मत्ताश्यतीअंधारोवेद ।" गुरुकहे " श्रारोवेमि” फिर श्रावक क्षमाक्षमण देके प्रोवेक कहित छिमाणसागा कडेन: अंबित क्षमाश्रमण देके कहे " तुह्माणं पवेश्यं संदिसह साहूणं पएवेमि” गुरु कहे “ पवेयह ” पीने श्रावक परमेष्ठिमंत्र पढता हुथा, समयसरणको प्रदक्षिणा करे. । और संघ पूर्वे दिये हुए वासांको, तिसके . मस्तकोपरि देपण करे. । गुरु श्रासनऊपर बैठे, वहांसें लेके वासदेपपर्यंत क्रिया, तीन वार सहि साई। परवान उस पा९ १९ो परमेष्ठिमंत्र पढता हुथा, समयसरणको प्रदक्षिणा करे । और संघ पूर्वे दिये हुए वासांको, तिसके . मस्तकोपरि देपण करे. । गुरु श्रासनऊपर बैठे, वहांसें लेके वासदेपपर्यंत क्रिया, तीन वार सहि रीतिसें करना.। फिर श्रावक दमाश्रमण देके कहे "तुह्माणं पवेश्य” फिर दमाश्रमण देके कहे “साहू णं पवेश्यं संदिसह कालसग्गं करेमि ” गुरु कहे