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चतुर्थपरिजेद.
३५५ धनासिरी. जबलग विषय घटा न घटी। एटेक ॥ तबलग तप जप संयम क्रिया ॥ कहा करत कपटी ॥ लोक दि खावन करत हे क्रिया ॥ पहिरत पीत पटी ॥१॥ ज ॥ ध्यान धरी योगी होय बेहत॥बक वृत्ति कप टी ॥ बेठ तखत ज्ञानी होय बेहत॥ करे उपदेश अती ॥२॥ज ॥ उग्रविहार धरत श्रागंबर ॥ मुख से कहत यति ॥ वनवासी तनजस्म लगावत ॥ शिर पर धरत जटी॥३॥ ज ॥ नग्न रहत पंचाग्नी सेव त, साधत योगही। शह हह कष्ट करे पण मनतो, नाचत नृत्यनटी ॥४॥ जबगल विषय घटा न घटी
तबलग तुं क्या फलपावेगो, विषयवहीनकटी ॥ जैन गायन मंगल ताकुं वंदत ॥ जाकी अक्षयज्ञान दशा प्रगटी ॥५॥ जवलग ॥ इति ॥
राग कल्याण जय जय नव पदा श्राप संपदाकाप आपदा ते शुज ध्यानथी सदा ॥ एटेक ॥ श्वेतरंग अरिहंता वंदो, रातासिझमहंत ॥ श्राचारजपीला ने लीला, उवकायाजगवंत ॥१॥ज॥ सुंदरश्याम सखूणा साधु॥ धवलाले पद चार ॥ दंशणनाण चरण तपवंदो, सिक चक्र एसार ॥२॥ज ॥ पांच गुणी चल गुण जे एमां, श्राधारा श्राधेय ॥ गुणसेव्याथी गुणीयल थाये, जाणोनिः संदेह ॥ ३ ॥ज॥ शांतिसारे विधन