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६४७ जैनधर्मसिंधु. ?श्रा, गृहीगुरुके पगोंमें पडे । मेखलाको एकाशी (१) हाथपणा विप्रको एकाशीतंतुगर्न जिनोपवी त सूचनकेवास्ते, क्षत्रियको चौपन (५४) हाथ तावत्प्रमाणतंतुगर्न जिनोपवीत सूचनकवास्ते, और वैश्यको सत्ताइस (२७) हाथ तर्जसूत्रसूचनके वास्ते है । ब्राह्मणको नवगुणी क्षत्रियको गुणी
और वैश्यको त्रिगुणी, मेखला बांधनी। तथा मौंजी, कौपीन, जिनोपवीत, श्नोंका पूजन, गीतादिमंगल, निशाजागरण, तिसके पूर्व दिनकी रात्रिमें करणा। मेखलाबंधनके पीछे फेर गृहस्थगुरु, उपनेयके विलस्त (वेंत) प्रमाण पृथुल (चौमा) और तीन विलस्त प्रमाण दीर्घ (लंबा) कौपिन दोनों हाथों में लेके ॥ ___ “॥ अह आत्मन् देहिन् मतिज्ञानावरणेन श्रुतज्ञानावरणेन अवधिज्ञानावरणेन मनःपर्यायावर णेन केवलज्ञानावरणेन इंजियावरणेन चित्तावर णेन आवृतोऽसि तन्मुच्यतां तवावरणमनेनावरणेन अर्ह ॐ ॥”
इस वेदमंत्रको पढता हुआ, उपनेयके अंतःक दकों कौपीन पहरावे । तदपीले उपनेय ‘नमोस्तु २' कहता हुआ, फिर जी गुरुके पगोंमें पडे । फिर तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशामें शक्रस्तव पाठ करे.॥