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अष्ठमपरिछेद. ६६ए यनविधि क्षयरहित हो. एसें व्याख्यान करके पर मेष्ठिमंत्र पढकर दोनों गुरु शिष्य खडे होवे. पीछे चैत्यवंदन, और साधुवंदन करे. ॥ इत्युपनयने व्रत विसर्गविधिः ॥ अथ गोदानविधिर्यथा ॥
अथ गोदानविधि दिखते हैं.॥ तदा व्रतविसर्गके अनंतर शिष्यसहित गुरु, जिनको तीन प्रदक्षिणा करके पूर्ववत् चारों दिशामें शक्रस्तवका पाठ करे. पीछे गृहस्थगुरु, श्रासनपर बैठे तब शिष्य गुरुको तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करके हाथ जोमके खमा होके, गुरुको विज्ञापना करे. यथा ॥ __“॥ जगवन् तारितोहं, निस्तारितोहं, उत्तमः कृतोहं, सत्तमःकृतोहं, पूतः कृतोहं, पूज्यकृतोहं, तनगवन्नादिश, प्रमाद बहुले गृहस्थधम्र्मे, मम किंच नापि रहस्यनूतं सुकृतं ॥"
हे जगवान् ! तारा मुझको, निस्तारा मुझको, उत्तम करा मुझको, अतिशयसाधु (श्रेष्ठ) करा मुझको, पवित्रकरा मुजको, पूज्य करा मुझको, तिसवास्ते, हे जगवन् ! प्रमादबहुल गृहस्थधर्ममें मेरेको कुबनी रहस्यनूत सुकृत कथन करो. ॥ तब गुरु कहे॥
"॥ वत्स! सुष्टुनुष्ठितं सुष्टु पृष्टं ततः श्रूयताम् ॥”
हे वत्स ! अच्छा करा, जला पूग, तिसवास्ते तूं श्रवण कर.॥