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जैनधर्मसिंधु.
दानं हि परमो धम्मों दानं हि परमा क्रिया ॥ दानं हि परमो मार्गस्तस्माद्दाने मनः कुरु ॥ १ ॥ दया स्यादजयं दानमुपकारस्तथाविधः ॥ सर्वो हि धर्मसंघातो दानेन्तर्भावमर्हति ॥ २ ॥ ब्रह्मचारी च पाठेन निकुश्चैव समाधिना ॥ वानप्रस्थस्तु कष्टेन गृही दानेन शुध्यति ॥ ३॥ ज्ञानिनः परमार्थज्ञा अर्हन्तो जगदीश्वराः ॥ व्रतकाले प्रयच्छन्ति दानं सांवत्सरं च ते ॥ ४ ॥ गृह्णतां प्रीणनं सम्यकूं ददतां पुण्यमक्षयम् ॥ दानतुल्यस्ततो लोके मोक्षोपायोऽस्ति नाऽपरः ॥ ५ ॥
अर्थः- दानही परम उत्कृष्ट धर्म है, दानही परमा क्रिया है, दानही परम मार्ग है, तिसवास्ते दान देनेमें मन कर. । अजयदानसें दया होवे है, दानसेंही तथाविध उपकार होवे है, सर्वही धर्म समूह दानमें अंतर्भाव हो सक्ता है । ब्रह्मचारी पाठ करके, साधु समाधि करके, वानप्रस्थ कष्ट करके, और गृहस्थी दान करके शुद्ध होता है. । तीन ज्ञानके धर्त्ता परमार्थके जाणकार, ऐसें अर्हत जगवंत जगदीश्वर जी व्रतसमय में सांवत्सर दान देते हैं. । दान ग्रहण करनेवालेको तो, दान तृप्त करता है; और देनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त करा ता है; तिसवास्ते दानके समान दूसरा कोई मोद का उपाय लोकमें नही है. ॥ ५ ॥ जिसवास्ते हे