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जैनधर्मसिंधु
वखाण रे ॥ ज० ॥ कपटनो कोट उमामियें, वाजे युं जीत निशान रे ॥ ज० ॥ ॥ इषि परें अष्टमी जा वशुं, च्यादरे प्राणी जेह रे ॥ ज० ॥ लब्धि कहे ज वि तस घरे, प्रगटी पुण्यनी रेह रे ॥ ज० ॥णाइति ॥ अथ नवमीनी सद्याय प्रारंभ ॥
॥ बन्यो रे विद्याजीनो कलपको ॥ ए देशी ॥ जीरे नवमी कडे नमीयें सदा, एतो श्रीजन केरां बिंब दो विशेष ॥ नव ांगें पूजा बनावीयें, ए तो मूकी मननो दंज हो ॥ विशे० ॥ १ ॥ ए की ॥ नविय शुभजावें करी ॥ ढंको विषयकषाय छातीव हो || वि० ॥ स्नात्र महोत्सव कीजीयें, एतो दीजें दान सदीव हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ २ ॥ जीरे पूजा न क्ति प्रजावना, करि रोपे जे कीर्ति थंज हो ॥वि० ॥ सुख अनंतां ते वरे, तस जस जणेसुर रंग हो ॥ ॥ वि० ॥ ज० ॥ ३ ॥ जिरे जिन में स्तवना जा वशुं, एतो जे करे नाटारंज हो । वि० ॥ लाज श्र नंतो जिन जणे, जुड़े महिमा जाव अचंन हो ॥ ॥वि० ॥ ज० ॥ ४ ॥ जिरे जिन स्तवना गुण गाव तां, एतो समकित होये उद्योत हो । लंकापति रा व परें, तो बांध तीर्थंकर गोत हो ॥ वि० ॥ ॥ ज० ॥ ५ ॥ जिरे अरिहंत जक्ति प्रजावथी, ए तो जाये जवनां पाप हो ॥ वि० ॥ जिरे नव निधा न सुख संपजे, वली होवे युं अधिक प्रताप हो ॥