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पंचमपरिछेद.
४४१ ॥ स ॥११॥ लब्धि कहे नविश्ण विधे ॥ सु० ॥ आदरे प्राणी जेह ॥ स ॥ सात रज्ज्वातम नेदीने ॥ सु० ॥ सवि सुख लेहेशे तेह ॥ स ॥१॥इति ॥
॥अथ अष्टमीनी सद्याय प्रारंजः॥ ॥ दरिया मन लागो ॥ ए देशी ॥ श्रापम कहे आठ मदनो, प्राणी मूको ते गम रे नवियण हित धरी ॥ आठ प्रकारे श्रातमा, उलखो तुमें अजिरा म रे ॥ ज० ॥ १॥ पडिकमणां पोषा करी, तोमो पुःखना वर्ग रे ॥ ज० ॥ सुमिति गुप्ति सूधां धरी, मेलो सुख अपवर्ग रे ॥ नम्॥२॥ अष्ट महागुण सिझना, ध्यावो ते निश दीस रे ॥ न ॥ अष्ट म हासिक संपजे, पहोचे मनह जगीश रे ॥ ज० ॥ ॥३॥ जिनदेवनी करो हाजरी, दिल पाक करी मन कोड रे ॥ न ॥ मनरुपी घोडो बनावियें, गुरु झान लगाम जोम रे ॥ ज० ॥४॥ शीलनी पाखर नाखीयें, तपरुपी खमंग खेश हाथ रे ॥ ज०॥ क्षमा बक्तर पेहेरीने, ध्यान कबाण सलोथ रे ॥ न० ॥ ॥५॥ विरति तीर चलाविनें, अष्ट करम मद मो डि रे ॥ ज० ॥ विषय कषाय जे आकरा, तेहनां ते मस्तक तोमि रे ॥ ज ॥६॥ श्रीजिन ागल श्रा वीनें, मजरो करो कर जोडि रे ॥ ज०॥ श्रीजिन केरा पसायथी, मोद शहेरें जाउँ दोगी रे ॥न॥ ॥७॥ श्राम दिन शुन जाणिनें, धर्मनां करियें