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अष्टमपरिछेद.
कम्मा॑दान विनिर्मुक्तं वाणिज्यं सर्वमुत्तमम् ॥ उपनीतेन वैश्येन कर्त्तव्यमिति यत्नतः ॥ ५ ॥ ॥ इतिवैश्यत्रतादेशः ॥
अथ वैश्यव्रतादेश कहते हैं | त्रिकाल अर्हत् पूजा करनी, सातवार जिनस्तव चैत्यवंदन करना, पंचपरमेष्टिमंत्र का स्मरण करना, निर्बंथ गुरुकी सेवा करनी । दो कालमें ( प्रातः काल में और सायं का लमें) यावश्यक ( प्रतिक्रमणादि) करना. बारां व्रत पालने, गृहस्थोचित तपोविधि करना, उत्तम धर्म श्रवण करना, परकी निंदा वर्जनी, सर्वत्र उचित काम करना, वाणिज्य, पशुपालन और खेती करके आजीविका करनी । सर्वथाप्रकारे प्राणोंका नाश होवे तो जी, सम्यक्त्व नही त्यागना; मुनियोंको अहार, पात्र, वस्त्र, मकान ( उपाश्रय ) का दान करना । कर्मादानसें रहित सर्व उत्तम वाणिज्य (व्यापार) करना, उपनीत वैश्यको ये पूर्वोक्त यत्न करणे योग्य है. ॥ इतिवैश्यत्रतादेशः ॥ अथ चातुर्वएर्यस्य समानो व्रतादेशः ॥
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॥ मूलम् ॥ निजपूज्य गुरुप्रोक्तं देवधर्मादिपालनम् ॥ देवार्चनं साधुपूजा प्रणामो विप्रलिंगिषु ॥ १ ॥ धनार्जनं च न्यायेन परनिंदा विवर्जनम् ॥ श्रवर्णवादो न क्वापि राजादिषु विशेषतः ॥ २ ॥