________________
५२७ जैनधर्मसिंधु रवि वार ॥ पवित्र पणे पुष्य मूल नक्षत्र, एकमनां जो लखिये यंत्र ॥१७॥ पार्श्व जिनेश्वर तणे पसाय, अलिय विधन सब दूर पलाय ॥ पंमित अमर सुंद र श्म कहे, पूजे परमारथ सब लहे ॥ १७ ॥
॥अथ मंगल चार ॥ ॥ सिकार्थ नूपति शोहे दत्रियकुंमें, तस घेर त्रिशलाकामिनीए ॥ गजवर गामिनी पोढीय नामि नी, चउद सुपन लहे जामिनी ए ॥ त्रुटक जामि नी मध्ये शोजतारे, सुपनदेखे बाल ॥ मयगल झष जने केसरी, कमला कुसुमनो माल ॥ इंसु दिनकर ध्वजा सुंदर, कलश मंगल रूप ॥ पद्म सरजलनिधि उत्तम, अमर विमान अनूप ॥ रत्ननो अंबार उज्व ल, वन्हि निर्धूम ज्योत ॥ कल्याण मंगलकारी माहा, करत जग उद्योत चजद सुपन सूचित विश्व पूजि त, सकल सुख दातार ॥ मंगल पहेबुं बोली एए, श्री वीर जगदाधार ॥ १ ॥ मगध देशमां नयरी राजगृही, श्रेणिक नामें नरेशरू ए॥ धनवर गोवर गाम वसे तिहां, वसुनूति विप्र मनोहरु ए॥ त्रुट क ॥ मनोहरु तस मानिनी, पृथिवी नामें नार ॥ अनूति आदेश , त्रण पुत्र तेहने सार॥ यज्ञकर्म तेणें श्रादखु, बहु विप्रने समुदाय ॥ तेणें समे ति हां समोसस्या, चोवीशमा जिनराय ॥ उपदेश तेह नो सांजली, लीधो संजमनार ॥ अगीयार गणधर