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चतुर्थपरिछेद. जिन सांजलो, शी कहुँ पुःखनीरे वात, पापना पिंग समान हुँ, तुमें बो जग तात । मुनी. ॥१॥ बादर सुक्षम नीगोदमां, जम्यो अनंतो काल, । बेदन नेदना वेदना॥ थकी काढो दयाल । मुनी. बीती चल रिंखी जीवमां, जम्यो काल असंख्य, जलचर थलचर खेचरे, नम्यो संख्यासंख्य।मुनी.॥३॥ तेम पंचेंडि तीर्यन्चमा। कीधा पाप अपार । तेथी वली २ नरक मां । उपज्यो बहु वार । मुनी. ॥४॥ साते नरक मां वली २, ऊपनो वार अनंत, परमां धामीनी वेद ना, पापी जीव सहंत । मुनी. ॥ ५॥ पकमी पळा मता, देतां उपर मार, करवत थी शीर वेरता, मारे वली तरवार । मुनी.॥६॥एम अनंती, वेदना,सही मै वार अनन्त; पण था पापी जीवना, मुखनो श्राव्यो न अन्त । मुनी. ॥ ७ ॥जगवडल जिनराजजी, हवे आव्वो तुम पास, डोडं नही हवें डेमलो, तुजमां ने मुज आश । मुनी. ॥॥ जीव अनन्ता ऊधर्या, देश अदय ज्ञान, बालमित्रनी विनती, चित धरजो जगवान । मुनी. ॥ ए॥
श्रीन मिनाथ जिनुं स्तवन । दशा श्रा-शी थर मारी-ए राह । मोहनगारी, मनोहारी, शोना नमीनाथनी नारी॥मस्तक मुकुट मणी तणी, कांति अतिचलकंत॥नाल स्थल पण ऊल कतुं, कुंमल थी उससंत, सकल अंगे शोनाकारी,