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जैनधर्मसिंधु.
पुनः मेंतो दासी 'तुमारी विना दाम कि । निजरमें जो उहाँ किसी कामकि ॥१॥ और देवसे काम नही मेरे। दिलमें वसि है सूरत स्यामकी ॥॥मे०॥ घडि घडि पल पल बिन लिन निस दिन । रटन लगी है तेरे नामकी ॥३॥मे॥ राखूगी आमें सुरमें से बढके, जो पांजगी रजमें तेरे धामकी । मे॥४॥तप जप संजममें चित लावो, जेसे मिले राज शिववामकी॥५॥जैनधरम मानव जव पाके । करलेन लाई आतम रामकी ॥६॥ मे॥ दास गुलावकी एहि अरज हे। सार करो मुफ नामकी ॥ मे ७ ॥इति॥
रागिणी गारा नैरवी वस्तुगतेवस्तुनोलदाण, गुरुगम विनानहीपावेरे। गुरुगमविन नहीपाबेकोऊ, नटकत नरमावे॥जवन आरिशे श्वानकुकमा निजप्रतिबिंबनिहालेरे ॥ इतर रूपमनमाहि विचारी,महाशुध विस्तारेरे॥व०॥निर मल फिटक शिलाअंतरगत, करिबर लक्षपर गहिरे॥ दशनपुराय अधिक उखपावे, वेषधरत दिलमांहिरे व०॥२॥सश खेजाय सिंघकुं पकडे । कुवोदिछ दि. खारे॥ निरख हरितेजाणफुसरो । पड्यो ऊंप तिहां खारे ॥व०॥३॥ निजबायावेताल नरमधर ॥ मर सबाल चित मांहिरे ॥ रजु सर्प करि कोज मानत॥ ज्यौलौंसमजत नां हिरे ॥व०॥४॥. नलनी व्रम