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________________ द्वितीयपरिबेद. १५ अथ सिद्धचक्रजीनी स्तुति ॥ जिनशासन वंडित पुरणदेव रसाल ॥ नावे जविनजिये, सिद्धचक्र गुणमाल ॥ त्रिकाले एहनी पुजा करे उजमाल ॥ ते अमर अमरपद सुख पामे सुविशाल ॥१॥ अरिहंत सिझवंदो, आचा. रज उवसाय ॥ मुनिदरसण नाण चरण तप ए स मुदाय ॥ ए नवपद समुदित, सिझचक्र सुख दाय॥ ए ध्याने नविनां, नव कोटी पुःखजाय ॥२॥ श्रा शो चैत्रीमा शुद सातमथी सार॥पुनम लगी कीजे, नव आंबिल निरधार ॥ दोय सहस गणेवं, पद सम साढाचार ॥ एकाशी आंबिल तप श्रागम अनुसार ॥३॥ श्रीसिद्धचक्र सेवक, श्रीविमलेश्वरदेव ॥ श्रीपालतणीपरे सुख पूरे स्वयमेव ॥ दुःख दोहग नावे, जे करे एहनी सेव ॥ श्रीसुमती सुगुरुनो राम कहे नितमेव ॥४॥ इति ॥ ॥अथपर्युषण स्तुति ॥ सत्तर नेदी जिन पूजा रचीने. स्नात्र महोत्सब कीजेजी ॥ ढोल ददामां मेरी नफेरी, जबरी नाद सुणीजेजी ॥ वीरजिन आगे नावना नावी, मानव नव फल लीजेंजी ॥ पर्व पजूसण पुरव पुण्ये, आ. व्यां एम जाणीजे जी॥१॥मास पास वली दसम सुवालस, चत्तारी अ कीजेंजी ॥ उपर वली
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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