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पंचमपरिछेद
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॥२॥ साधु अने श्रावक तणां, व्रत ने सुखदायीरे शियल विना व्रत जाणजो, कुशका सम जारे ॥ ॥ शि ॥३॥ तरुवर मूल विना जिस्यो, गुण विण लाल कमानरे ॥ शियल विना व्रत एहवं, कहे वीर जगवानरे ॥ शि० ॥४॥ नव वामें करी निर्मबुं, प हेर्बु शीलज धरजोरे ॥ उदय रत्न कहे ते पड़ी, व्रतनो खप करजोरे ॥ शि॥५॥
॥निजमीनी सवाय ॥ - निमी वेरण हुइ रही, कीम कीजें हो सा पुरु श निदानके; चोर फरे चिहुं पासथी, किम सूता हो कांश दिनने रात के ॥ नि ॥१॥ वीर कहे सूणो गोयमा, मत करजो हो एक समय प्रमादके ॥ जरा थावे यौवन गले, किम सूता हो कांश कव ण सवादके ॥ नि ॥२॥ चउद पूरवधर मुनिवरा निसा करता हो गया नरक निगोद के ॥ अनंतो अनंत काल तिहारहे, श्म बगडे हो, कांश धरमनो मोदके ॥ नि ॥३॥ जोरावर घणा जालमी, यम राजा हो कांश सबल करके ॥ नीज सेन्या लक्ष चिहुं दिशे, किम जागता हो नर कहिये शूर के ॥ नि० ॥ ४॥ जागतडां गंजे नहि, बेतराये हो नर सूतो नेटके ॥ सूतारीणी पामा जण्या, किम कीजें हो शा पुरुषनी नेटके ॥ नि ॥५॥ श्री वीरें श्म जाखीयुं, पंखी नारंड हो न करे परमाद के; तेह