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अष्टमपरिच्छेद. ६०३ ण, अथवा कुखक, गृहस्थोंके संस्कारकर्म करणेके योग्य होता है.॥
उक्तं च ॥ शांतो जितेंजियो मौनी दृढसम्यक्त्ववासनः॥ अर्हत्साधुकृतानुज्ञः कुप्रतिग्रहवर्जितः॥
नाषार्थः-शांत, जितेंजिय, मौनी, दृढसम्यक्त्ववा न्, अर्हन् और साधुकी आज्ञा करनेवाला, बुरा दान न लेवे, क्रोध मान माया लोनका जीपक, कु लीन, सर्व शास्त्रोंका जानकार, अविरोधी, दयावान्, राजा और रंकको समदृष्टिसें देखनेवाला, प्राणोंके नाश होते जी अपने आचारको न त्यागे सुंदर चेष्टावाला होवे, अंगहीन न होवे, सरल होवे, सदा सजुरुकी सेवा करने वाला होवे, विनीत, बुद्धि मान्, दांतिमान् , कृतज्ञ, दोप्रकारसे अव्यनावसे शु चिहोवे; गृहस्थोंके संस्कार करने में ऐसा गुरु चाहिये.
सो पूर्वोक्त विशेषण विशिष्ट गुरु, गर्जाधान कर्ममें प्रथम गर्नवंतीके पतिकी घाझा लेवे । और सो गर्जवंतीका पति, नखसे लेके शिखा (चोटी) पर्यंत स्नान करके, शुचि वस्त्र पहिनके निज वर्षानुसार उपवीत उत्तरीय वस्त्र उत्तरासंग करके, प्रथम शा स्त्रोक्त बृहत्स्नात्रविधिसें अर्हत्प्रतिमाका स्नात्र करे.
और तिस नात्रके पाणीको शुज जाजनमें स्थापन करे.। तिसपी शास्त्रोक्त विधिसे गंध, पुष्प, धूप,