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चतुर्थपरिजेद.
३३१ वीती वतियां । ह० देर । न धीर तनमें खुसी न दिल में वेहाल पनमें नराई बतियां ॥ ह० १॥ सि कार्थ तिसला के नन्द सुनिये कृपाके सिंधु देवी रस्वामी, संसार वनमें कीयो नमन मैं, चोरासि दलकी यह च्यार गतियां ॥ ह०२॥ कषाय कुमति कुकर्म मिलके दे मार च्यारुं तरफसे घेरयो । सदासे इनकी वेजासही है मैं मेरे दमसे उपाधि अतियां। ॥ ह०३ ॥ रही न वाकी विपतकी वातें न जानुं तुम क्या विशाल ज्ञानी, रहुं सरणमें निहाल कीजै अजैकी लागी चरनसै मतियां ॥ ह० ४ ॥
पुनः साहिव तेरी वंदगी में जुलता नही, जुलता न ही साहव विसरता नही॥ सा टेर ॥ अष्टादश दोष रहित देव है सहि औरदेव अन्यदेव मानता नही ॥ मा सा० १ ॥ मुनि है निग्रंथ सो तो गुरु है सहि और गुरु जैसधारी मानता नही ॥सा॥ जीव दया सुझ सो तो शास्त्र है सहि और शास्त्र आस्या रुपी मानता नही । सा० ॥ ३ दान शिय ल तप जप धर्म है सहि और धर्म विषय मानता नही । सा ४ ॥ मुक्ति रुपी सिक शिला वांबता सहि संसार मुखजाल रूपी मेटीए सहि ॥ साप ५॥ कहत मुनि खेत माल तारिये मोहि आवाग मन मोरी मेटिये सहि ॥ सा०६ इति