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जैनधर्मसिंधु.
पुनः दीले नादानकुं समझाया चायगें । हाल में हमकुं जगति जली हुवे । सुन शीयल संजमकुं सजवाय लायेगें ॥ दी०॥ अष्टकर्मोंकी प्रकृतिका सञ्चय होए जाहिल । वंध वा उदय उदीरण सत्तामें तूं गाफि ल । महाराजा मोहकी गति नाति से उलका सा मिल । सागर कोमा कोमी सतरे काठीया नव सा मिल । चउनाणी अनगार जिनके हीये इस धाई ल। जैसे कर्म मोह मदनकुं जीतावी चायेगें। दिल २॥ इति
पुनः आवो नेम रह जावो सदन, हमको न सता वोरे । आ० (टेर ॥ ब्याहन आए सजकै सऊन, पशुवनकी सुन देख रुदन। गिरनारी चले निज बांड वतन् तकसीर बतावोरे ॥ ये० १॥ पूनम जैसे चंद बदन, मोहन मुरति श्याम बरण, मेरी निकी लागी नव जवकी लगन, मत बेह दिखावोरे ॥२॥ ये रिहम् ॥ संजम दूती लागि श्रवन्, प्रजुको सिखाए नीके फिरन् । प्रज्जु तारण ना म तुह्मारो तरण । रथ फेरिन जावोरे येरिर० ३ ॥ कपूर कहे प्रजुजीके चरन् राजुल मन वेराग धरण ले दोम नेमि जिनजीकी सरण, शिवपूरतो दिखा वोंरे ॥ ये रिशि० ४ ॥ इति