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जैनधर्मसिंधु.
वा० ॥ १ ॥ दांत पाडुंरें डुती तथा पाकोसपना लजं प्राण ॥ जेणें महारो जीवन जोंलव्यो | लइ ना ख्यो नरकनी खा ॥ वा० ॥ २ ॥ माययें मद पाइ रे, वास्यो पोताने वास ॥ माहारोने वासो एपें टा लीयो, इणे मुज कीधी निरास ॥ वा० ॥ ३ ॥ गुण वंतना गुण गोपवी, निगुणाशुं मांडे गोठ ॥ आप स्वरुप न खोलखे, एतो पापनी चलवे पोठ ॥ वा०॥ ॥ ४ ॥ पूज्य साथै धरे आसकी, एतो पूज्यना पूजे पाय || परम महोदय पामशे ज्यारें अवशे आपणे ठाय ॥ वा० ॥ ५ ॥ श्रीदादापास पसाउलें, मेंतों कुमतीनो पाम्यो कोट ॥ घरें आयो निज घरधणी, तो शोकनी चूकवी चोट ॥ वा० ॥ ६ ॥ उदयरंतन वाचकवदे, पूजशे जे प्रभुना पाय ॥ ते परमपदें पधारशे, वली संपद लेशे सवाय ॥वा०॥७॥ ॥ अथ श्री शांतिनाथनो दशमो जव मेधरथ राजानी सद्याय प्रारंभः ॥
॥ दशमें नवेंश्री शांतिजी, मेघरथ जीवडा राय रूमाराजा ॥ पोसह शालामां एकला, पोसह लीयो मन जाय ॥ रूमा राजा ॥ धन्य धन्य मेघरथ राय जी, जीवदया गुण खाण ॥ धर्मी राजा ॥ धन्य० ॥ ॥ १ ॥ एकणी ॥ इशानाधिप इंद्रजी, वखाण्यो मेघरथ राय ॥ रुमा राजा ॥ धर्मे चलाव्यो नवि च ले, महासुर देवता श्राय ॥ रुडा राजा ॥ धन्य०॥२॥