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४५७ जैनधर्मसिंधु गुण जे बहु ॥ कहे लावण्यसमय कर जोक, गौत तू संपत्ति कोम ॥ ए॥ इति ॥
॥अथ श्री तिजयपहुत्त प्रारंज ॥ ॥तिजयपहुत्त पयासय, अह महापामिरजुत्ता णं ॥ समय रिकत्त विश्राणं, सरेमि चकं जिणंदाणं ॥१॥ पणवीसाय असीश्रा, पन्नरस पन्नास जिण वर समूहो ॥ नासेउ सयल रिश्र, नविश्राणं नत्ति जुत्ताणं ॥२॥ वीसा पणया लाविय, तीसा पन्नत्तरी जिणवरिंदा ॥ गहन्नू रक सारणि, घोरु वसग्गं पणासंतु ॥ ३ ॥ सित्तिरि पणतीसाविय, सही पंचेव जिणगणो एसो ॥ वाहि जल जलण हरि करि, चोरारि महानयं हरज ॥४॥ पणपन्नाय दसेव य, पन्नही तहय चेव चालीसा ॥ रकंतु मे सरीरं. देवासुर पणा मिश्रा सिया ॥ ५॥ उ हरहुँ हः सरसुंसः, हरहुंहः तहचेव सरसुंसः ॥ श्रालिहिय नाम गणं, चकं किर सबउँनई ॥ ६ ॥ उ रोहिणी पन्नत्ती, वासिंखला तहय वऊअंकुसिया ॥ चके सरि नरदत्ता कालि महाकालि तह गोरी ॥७॥ गंधारी महाजाला, माणवि वझट्ट तहय अजुत्ता ॥ माणसि महमाण सिश्रा, विद्यादेवी रकंतु ॥७॥ पंचदस कम्म नूमिसु, उप्पन्नं सत्तरं जिणाणसयं ॥ विविद रयणाश्वन्नो, वसोहिअं हरउ पुरियाई ॥ ए ॥ चउतीस अश् सय जुश्रा, श्र: महापाडि