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जैनधर्मसिंधु.
स्सग्गं अन्नथ्थउस सिए० जाव - अप्पाणं वोसि रामि ॥” कहके कायोत्सर्ग करना. कार्योंत्सर्गमें चार लोगस्स चितवन करना, पारके श्राराधना स्तुति कहनी ॥ सा यथा ॥
यस्याः सान्निध्यतो जव्या, वांबितार्थप्रसाधकाः श्रीमदाराधना देवी, विघ्नत्रातापहास्तु वः ॥ १ ॥ शेषं पूर्ववत् ॥
पीछे तिसही पूर्वोक्त विधिसें सम्यक्त्वदंककका उच्चारण, द्वादशव्रतोंका उच्चारण करावणा । वास क्षेपकायोत्सर्गादि जी, ' संलेखना श्राराधना' के श्रालापककर के तैसेंही जाणना. । प्रदक्षिणा करनी, ग्लानकी शक्ति के अनुसार होवे जी, और नही जी होंवे । दंमकादिमें 'जावनियमंपतवासामि' के स्थान में 'जावजीवाए' ऐसें कहना । पीछे सर्व जीवों केसाथ अपराध की क्षामणा करनी । पीछे श्रावक परमेष्ठिमंत्रोच्चारपूर्वक गुरुके सन्मुख हाथ जोडके कहें खामि सजीवे सवे जीवा खमंतु मे ॥
मित्ती मे सवनूएस वेरं मझ न केाइ ॥ १ ॥ गुरु कहें “ ॥ खामे जो खमइ तस्स श्री राहणा
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जो न खमइ तस्स नहि राहणा ||" पीछे श्राव क क्षमाश्रमणपूर्वक कहें । " जयवं श्रणुजाह । गुरु कहें " । श्रणुजाणामि । " श्रावक परमेष्ठिमंत्र पाठपूर्वक कहें ।