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________________ अष्टमपरिछेद. G०५ यथावत् कहे व्रतमें रहा हुश्रा, गृहस्थ जी कल्याण जागी होता है. । इति व्रतारोपसंस्कारे गृहिणां दिनरात्रिचर्या ॥ वासनागुरुसामग्री, विनवो देहपाटवम् ॥ संघश्चतुर्विधो हर्षा, व्रतारोपे गवेष्यते ॥१॥ वरकुसुमगंधकय, फलजलनेवऊधूवदीवेहिं ॥ अविहकम्ममहणी, जिणपूश्रा अहाहा होई ॥२॥ इति व्रतारोप संस्कार ॥ अथ अंत्य संस्कार विधिः ॥ श्रावक यथावत् व्रतोंकरके निज लवको पालके कालधर्मके प्राप्त हुए, उत्कृष्ट आराधना करे, तिस का विधि यह है. । जिन अरिहंतोंके कल्याणक स्थानोंमें, निर्जीव शुचि पवित्र स्थंमिल-जगामें, वा अरण्यमें, वा अपने घरमें, विधिसे अनशन करना। तहां शुजस्थानमें ग्लानको पर्यंत आराधना कराव नी। तथा अवश्यमेव अमुकवेला निकट मरण होवे गा ऐसें ज्ञानके हुए, तिथिवारनदात्रचंबलादि न देखना । तहां संघका मीलना करना । गुरु, ग्लान को जैसे सम्यक्त्वारोपणमें तैसेंही नंदि करे. । नवरं इतना विशेष है. सर्व नंदि देववंदन कायोत्सर्गादि पूर्वोक्त विधि 'संदेहणा आराहणा' इस नाम करके करावणा.और वैयावृत्त्य कर कायोत्सर्गानंतर। “॥ आराधना देवता आराधनार्थं करेमि काज
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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