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अष्टमपरिछेद. "श्च्छामि खमासमणो वंदिलं जावणिज्काए निसीहियाए मबएण वंदामि ॥ जगवन् इच्छाका रेण तुले श्रमं सम्मत्ताइतिगारोवणिअंनंदिकळाव णियं वासकेवं करेह ॥" __ पी गुरु, वासांको, सूरिमंत्रसें, वा, गणि विद्या अर्थात् वर्धमान विद्यासें, अनिमंत्रके, परमेष्ठि और कामधेनु दोनों मुजाकरके, पूर्वानिमुख खमा होके, वामे पासे रहे श्रावकके शिरमें निदेप करे. । तिस के मस्तकके उपर हाथ रखके, गणधर विद्यासे रक्षा करे. गुरु श्रासनउपर बैठ जावे, और श्राफ पूर्व वत् समवसरणको प्रदक्षिणा करके, गुरु आगे दमा श्रमण देके कहे. ___“॥ इच्छाकारेण तुले अझं सम्मत्तातिगारोव णि चेश्श्राइं वंदावहे ॥” __ पीछे गुरु और श्रावक दोनो, चार वर्षमानस्तु तियों करके चैत्यवंदन करें। जो बंदसें वर्षमान होवे,
और चरम जिनकी प्रथम स्तुतिवाली होवे, तिनको वमानस्तुति कहते हे। पीले चारस्तुतिके अंतमें “ श्रीशांतिदेवाराधनार्थं करेमि कासग्गं वंद गवत्तियाण पूश्रणवत्तियाण सकारव० स० जावय प्पाणं वोसिरामि" सत्ताइस उवासप्रमाण अर्थात् 'सागरवरगंजीरा' तक चतुर्विशतिस्तव चितवन करे. । पीले 'नमो अरिहंताणं' कहके पारे । पार